मौलश्री की डाल पर
उसके ककहरे में
सुनाई देती
कृष्ण की बाँसुरी से निकलती
पण्डित हरि प्रसाद चौरसिया की फूँक
लाल रत्ती की तरह उसकी आंखों में
तुलती काक की धूर्तता
अपने कलेजे के टुकड़ों को
डाल देती है उसके घोंसले में
जैसे पन्नाधाय ने सुला दिया था
अपना लाल तलवार की धार पर
वह दूर से देखती
अपने बच्चों के मुख में
निवाला देते शत्रु को
कालिदास द्वारा दी गयी
'विहगेषु पण्डित' की उपाधि के पीछे
छिप जाता एक माँ का साहस
अनसुना रह जाता विलाप
सदियों से कोयल के जिस्म पर
लहराता एक काला लिबास
लेकिन कूक में नहीं सुनाई देता
अंडे से बाहर निकलने से पहले
कौवे के मृत बच्चों के लिए
गाया जाने वाला
मर्सिया का शोक संगीत
● सीमा बंगवाल
बहुत खूबसूरत कविता ।बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति सराहना से परे।
ReplyDeleteसादर