Wednesday 17 June 2020

कोयल/सीमा बंगवाल


मौलश्री की डाल पर
उसके ककहरे में
सुनाई देती 
कृष्ण की बाँसुरी से निकलती 
पण्डित हरि प्रसाद चौरसिया की फूँक

लाल रत्ती की तरह उसकी आंखों में
तुलती काक की धूर्तता

अपने कलेजे के टुकड़ों को 
डाल देती है उसके घोंसले में
जैसे पन्नाधाय ने सुला दिया था 
अपना लाल तलवार की धार पर

वह दूर से देखती 
अपने बच्चों के मुख में 
निवाला देते शत्रु को
कालिदास द्वारा दी गयी
'विहगेषु पण्डित' की उपाधि के पीछे
छिप जाता एक माँ का साहस
अनसुना रह जाता विलाप

सदियों से कोयल के जिस्म पर 
लहराता एक काला लिबास 
लेकिन कूक में नहीं सुनाई देता
अंडे से बाहर निकलने से पहले
कौवे के मृत बच्चों के लिए
गाया जाने वाला 
मर्सिया का शोक संगीत

● सीमा बंगवाल

Thursday 11 June 2020

बिन प्रेम / सीमा बंगवाल

जो फूल बसन्त का इंतज़ार किये बिना 
मुझसे मिलने चले आए थे
मेरी साँसों की चौखट पर 
आज भी पड़े हैं
उनकी ताज़गी भी जाती रही
तुम्हारे नासमझी में रूठने से



प्रेम जाने किस दिशा में उड़ गया
जैसे प्यासे पंछी मुख मोड़ लेते हैं
पोखर सूखने की आशंका से

अभी भी दीवार पर टंगी है
अल्हड़ उम्र की एक तस्वीर
चित्र में खिंची लकीरों की तरह
मौसम में कुछ नहीं बदला है

बहुत कठिन होता है
महसूस करना प्रेम की गूढ़ता
सारी ज़रूरतों से अलग 
प्रेम मन के अनंत में समा जाता है

प्रेम के बग़ैर मर जाता है संसार
जैसे रेत के बिन खत्म हो जाते हैं रेगिस्तान

◆ सीमा बंगवाल

Thursday 4 June 2020

तुम्हारा प्रेम / सीमा बंगवाल

तुम्हारी आवाज़ की खनक सुनकर
हवा साज़ में बदल जाती है
बजने लगते हैं सुर
हौले से मेरे कानों में 
घोलते मधुरस भरे गीत

जीत लेना चाहती हूँ
तुम्हारी निःशब्दता
अपने शब्दों के रूप से
जैसे विंग्स की कहानी का मौन
विजित करता
एक ऑस्कर प्रतिमा

तुम्हारी नींद में जागना चाहती हूँ 
लम्बी काली रातों में
जैसे उत्तरी ध्रुव पर किरणें 
डालती हैं पहरा महीनों तक

सोना चाहती हूँ पृथ्वी के अनन्त तक
हर पल सजगता लिए 
कि तुम बने रहो प्रहरी काल के

तुम्हारी आँखों की कोरों पर
खोजना चाहती हूँ खुशियों की नमीं
जिसे जोसेफिन नहीं देख सकी थी
नेपोलियन की आँखों में

तुम्हारे दुःख को 
मढ़ लेना चाहती हूँ 
अपने सीने में
जैसे डेसडेमोना की मासूमियत ने
उतार लिया था ऑथेलो का खंज़र

चाहती हूँ कि मेरी साँसों में अनवरत
चलता रहे तुम्हारा प्रेम
जैसे समय चलता है 
बिग बैंग के धक्के से

मैं रुकना चाहती हूँ 
किसी कलम की तरह
तुम्हारी जीवन पाण्डुलिपि के
आखिरी पृष्ठ पर
कुछ इस तरह 
कि फिर कुछ लिखे जाने की
गुंजाइश शेष न रहे

● सीमा बंगवाल

Wednesday 3 June 2020

भय काल/सीमा बंगवाल


जब जीवन स्थिर हो जाता है
जब दुनिया शांत हो जाती है
एक गाँव की तरह दिखने वाला संसार
छोटे छोटे मोहल्लों में बंटा नज़र आता है
शेष बचता है डर
जो हम सबके मन के अंदर है
वो ही बाहर बेख़ौफ़ सड़कों पर घूमता है

ये ज़हर उस प्याले में नहीं 
जिसे सुकरात ने पिया
दहशत का सायनाइड 

अपनी मिठास से
सारे जीवन लीलने को तैयार है

प्रलय का समय आता दिखता है
कयामत का दिन 
अपने आने के इंतज़ार में
धर्मो के सारे समाधान करने को हैं
जातियाँ अस्तित्व खोने के लिए तैयार हैं

शहर की साँसे थम गई हैं
ये कैसे दिन हैं जो रातों से ज़्यादा काले हैं
चोर और हत्यारे तक 
अपने घरों में रहने को हैं मजबूर
जिंदा रहने की ज़रूरतें बनाती हैं
समाज मे असमान वितरण की खाई 
जो अराजकता की ओर अग्रसर हैं

मजबूर हैं अन्नदाता
भूख और जीवन मे से 
एक को चुनने के लिए
धूल जम रही है मजदूर की
कुदाल, हथोड़े और फावड़े पर
कंपनियों से बाहर आते लोग
बेरोजगार हो गए हैं

समाज की वहशी निगाहों से बचकर
स्त्रियाँ घर में सुरक्षित होने का भ्रम पालती हैं

ग्लोबल वार्मिंग की वार्ताएं असफल हैं
चहचहाते पंछी उड़ते हैं झुण्ड में 
उनके पंखों पर ज़हरीली हवाओं का बोझ
कुछ कम है

सूडान के तड़पते बच्चे को
चील का निवाला बनते हुए
अब नहीं देखता कोई केविन कार्टर

जीवन दर्शन 
अध्यात्म की पुस्तकें 
राजनैतिक सूत्रग्रंथ
धर्मशास्त्र 
सबसे अलग एक विचार जन्म लेता है

खाली हाथ मौत को गले लगाने वाला
हर कोई सिकंदर नहीं होता

●सीमा बंगवाल
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