Tuesday 9 August 2022

9 अगस्त 1945 का नागासाकी // सीमा बंगवाल


 

नर्क की कल्पना जन्म लेती है

उन अविष्कारों के प्रयोग में

जो किसी देश को सम्पन्न करते हैं 

मैनहेट्टन जैसी परियोजनाएं

मिटा देती हैं मानव जाति की कई पीढ़ियाँ


हिरोशिमा विध्वंस के बाद

ओपेनहाइमर की खोज से

वीरान होना था एक और शहर

नागासाकी के बजाए

कोई दूसरा भी होता 

तो भी वहाँ एक जैसे होते

राख और कोयले के ढेर 


नोबेल पुरस्कार वाला नाम 'फैटमेन' 

बी-29 के मृत्यु षड्यंत्र में साथ था

तानाशाही की लपटों को भांपकर

सफेद-काली घटाओं ने माँ की तरह

शत्रु से छिपा लिए

कोकुरा के बारूद कारखाने 

जो ध्वस्त होने के निशाने पर थे

पर्वतों की गोद में सोया नागासाकी

बदले में सुलग गया

रक्त-तप्त भट्टी में

उसकी माँ नहीं थी


इंसान भूख से नहीं मरते

न ही बीमारी से

वो मरते हैं 

जब उनका आसमान ,ज़मीन, हवा

सब छीनकर

फूँक दिया जाता है उनका शरीर

राख हो जाने के लिए


जवान होती धूप पर देह के ढेर

तेज़ी से सुलग गए

आँखों में पोखरों का ठहरा पानी

दिल के अहसास

नरकंकालों की परिणति में

बम के धमाके के बीच ग़ुम गए

शेष विकृतियों में 

अपनी विरासतों  को संभालने की ज़िद है


प्रयोग करने वाले दिमागों की क्रूरता 

परमाणु बमों से ज्यादा है

उन्हें नहीं मालूम 

हथियारों के जखीरे 

ज़मीनों को बंजर कर देंगे

समुद्री कोशिका का अनंत विकास

उत्तरजीविता की ज़िद में दम तोड़ देगा

शायद पूछने के लिए आसमान बचा रहे

सूरज, चांद, सितारों की दुनिया में

इंसान कहलाने वाले वो कौन थे?


● सीमा बंगवाल


(चित्र गूगल साभार)


कविता में प्रयुक्त शब्द -

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★ ओपेनहाइमर:

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             जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर एक भौतिकविद् थे, जो परमाणु बम के जनक के रूप में अधिक विख्यात हैं। वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय परमाणु बम के निर्माण के लिये आरम्भ की गयी मैनहट्टन परियोजना के वैज्ञानिक निदेशक थे।


★ मैनहेट्टन परियोजना:

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               द्वितीय विश्व युद्ध के समय पहला परमाणु बम बनाने के लिये अमेरिका ने जो परियोजना चलायी थी उससका नाम मैनहेट्टन परियोजना (Manhattan Project) था।

Thursday 20 May 2021

श्रेष्ठ कविता / सीमा बंगवाल


कवि कहता है

श्रेष्ठ कविता कभी नहीं लिखी जाती

इस उम्मीद के साथ कि वो 

कभी न कभी लिखी जाएगी

जब कवि अचानक से 

ख़ामोश हो दूर चला जाता है

कविता कवि का पीछा करती है

श्रेष्ठ होने के लिए

कागज़ पर उतरने के लिए 

वह हमेशा इंतज़ार करेगी

ऐसे कवि का

जो कहता रहा है

श्रेष्ठ कविता कभी नहीं लिखी जाती।


◆ सीमा बंगवाल

Wednesday 17 June 2020

कोयल/सीमा बंगवाल


मौलश्री की डाल पर
उसके ककहरे में
सुनाई देती 
कृष्ण की बाँसुरी से निकलती 
पण्डित हरि प्रसाद चौरसिया की फूँक

लाल रत्ती की तरह उसकी आंखों में
तुलती काक की धूर्तता

अपने कलेजे के टुकड़ों को 
डाल देती है उसके घोंसले में
जैसे पन्नाधाय ने सुला दिया था 
अपना लाल तलवार की धार पर

वह दूर से देखती 
अपने बच्चों के मुख में 
निवाला देते शत्रु को
कालिदास द्वारा दी गयी
'विहगेषु पण्डित' की उपाधि के पीछे
छिप जाता एक माँ का साहस
अनसुना रह जाता विलाप

सदियों से कोयल के जिस्म पर 
लहराता एक काला लिबास 
लेकिन कूक में नहीं सुनाई देता
अंडे से बाहर निकलने से पहले
कौवे के मृत बच्चों के लिए
गाया जाने वाला 
मर्सिया का शोक संगीत

● सीमा बंगवाल

Thursday 11 June 2020

बिन प्रेम / सीमा बंगवाल

जो फूल बसन्त का इंतज़ार किये बिना 
मुझसे मिलने चले आए थे
मेरी साँसों की चौखट पर 
आज भी पड़े हैं
उनकी ताज़गी भी जाती रही
तुम्हारे नासमझी में रूठने से



प्रेम जाने किस दिशा में उड़ गया
जैसे प्यासे पंछी मुख मोड़ लेते हैं
पोखर सूखने की आशंका से

अभी भी दीवार पर टंगी है
अल्हड़ उम्र की एक तस्वीर
चित्र में खिंची लकीरों की तरह
मौसम में कुछ नहीं बदला है

बहुत कठिन होता है
महसूस करना प्रेम की गूढ़ता
सारी ज़रूरतों से अलग 
प्रेम मन के अनंत में समा जाता है

प्रेम के बग़ैर मर जाता है संसार
जैसे रेत के बिन खत्म हो जाते हैं रेगिस्तान

◆ सीमा बंगवाल

Thursday 4 June 2020

तुम्हारा प्रेम / सीमा बंगवाल

तुम्हारी आवाज़ की खनक सुनकर
हवा साज़ में बदल जाती है
बजने लगते हैं सुर
हौले से मेरे कानों में 
घोलते मधुरस भरे गीत

जीत लेना चाहती हूँ
तुम्हारी निःशब्दता
अपने शब्दों के रूप से
जैसे विंग्स की कहानी का मौन
विजित करता
एक ऑस्कर प्रतिमा

तुम्हारी नींद में जागना चाहती हूँ 
लम्बी काली रातों में
जैसे उत्तरी ध्रुव पर किरणें 
डालती हैं पहरा महीनों तक

सोना चाहती हूँ पृथ्वी के अनन्त तक
हर पल सजगता लिए 
कि तुम बने रहो प्रहरी काल के

तुम्हारी आँखों की कोरों पर
खोजना चाहती हूँ खुशियों की नमीं
जिसे जोसेफिन नहीं देख सकी थी
नेपोलियन की आँखों में

तुम्हारे दुःख को 
मढ़ लेना चाहती हूँ 
अपने सीने में
जैसे डेसडेमोना की मासूमियत ने
उतार लिया था ऑथेलो का खंज़र

चाहती हूँ कि मेरी साँसों में अनवरत
चलता रहे तुम्हारा प्रेम
जैसे समय चलता है 
बिग बैंग के धक्के से

मैं रुकना चाहती हूँ 
किसी कलम की तरह
तुम्हारी जीवन पाण्डुलिपि के
आखिरी पृष्ठ पर
कुछ इस तरह 
कि फिर कुछ लिखे जाने की
गुंजाइश शेष न रहे

● सीमा बंगवाल

Wednesday 3 June 2020

भय काल/सीमा बंगवाल


जब जीवन स्थिर हो जाता है
जब दुनिया शांत हो जाती है
एक गाँव की तरह दिखने वाला संसार
छोटे छोटे मोहल्लों में बंटा नज़र आता है
शेष बचता है डर
जो हम सबके मन के अंदर है
वो ही बाहर बेख़ौफ़ सड़कों पर घूमता है

ये ज़हर उस प्याले में नहीं 
जिसे सुकरात ने पिया
दहशत का सायनाइड 

अपनी मिठास से
सारे जीवन लीलने को तैयार है

प्रलय का समय आता दिखता है
कयामत का दिन 
अपने आने के इंतज़ार में
धर्मो के सारे समाधान करने को हैं
जातियाँ अस्तित्व खोने के लिए तैयार हैं

शहर की साँसे थम गई हैं
ये कैसे दिन हैं जो रातों से ज़्यादा काले हैं
चोर और हत्यारे तक 
अपने घरों में रहने को हैं मजबूर
जिंदा रहने की ज़रूरतें बनाती हैं
समाज मे असमान वितरण की खाई 
जो अराजकता की ओर अग्रसर हैं

मजबूर हैं अन्नदाता
भूख और जीवन मे से 
एक को चुनने के लिए
धूल जम रही है मजदूर की
कुदाल, हथोड़े और फावड़े पर
कंपनियों से बाहर आते लोग
बेरोजगार हो गए हैं

समाज की वहशी निगाहों से बचकर
स्त्रियाँ घर में सुरक्षित होने का भ्रम पालती हैं

ग्लोबल वार्मिंग की वार्ताएं असफल हैं
चहचहाते पंछी उड़ते हैं झुण्ड में 
उनके पंखों पर ज़हरीली हवाओं का बोझ
कुछ कम है

सूडान के तड़पते बच्चे को
चील का निवाला बनते हुए
अब नहीं देखता कोई केविन कार्टर

जीवन दर्शन 
अध्यात्म की पुस्तकें 
राजनैतिक सूत्रग्रंथ
धर्मशास्त्र 
सबसे अलग एक विचार जन्म लेता है

खाली हाथ मौत को गले लगाने वाला
हर कोई सिकंदर नहीं होता

●सीमा बंगवाल
◆◆◆◆◆◆◆
https://m.youtube.com/watch?feature=share&v=VrdlstVYDSQ

Sunday 31 May 2020

अदालत के बाहर बैठी स्त्रियाँ / सीमा बंगवाल


अदालतों के अहाते में
पेड़ की छांव के नीचे
बरसों से पड़ी बेंच
तारीखों के इंतज़ार में है

वह देख रही है
अदालतों का मुख्य द्वार
दिवानी व फ़ौजदारी मुकद्दमों पर
वकीलों का मेला लग चुका है
कानून की देवी की आँखों पर
काली पट्टी बांध दी गयी है

उसकी दृष्टि में हैं वे स्त्रियाँ
जिन्हें ज्ञात नहीं 
संविधान से मिले अधिकार
उन्हें कानून पर विश्वास है
इसलिए माँगने चली आयी हैं

उम्र की दहलीज़ पार करती स्त्री के घुटने 
गुज़ारे भत्ते की मांग में 
दर्द की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
अठारह बरसों से कराह रहे हैं

सफ़ेद वस्त्रों में लिपटी बेसहारा स्त्री
पिता से लेना चाहती है अधिकार
उसकी आँखों मे झलकता सम्मान
सामना करता है तिरस्कार का

दुधमुंहा बच्चा गोद लिए एक स्त्री
अपनी मायूसी में भुला चुकी है
दहेज उत्पीड़न का दुःख
 
सशक्त दिखाई देने वाली एक स्त्री
खड़ी है विशाल वृक्ष के नीच
घरेलू हिंसा से बचने के लिए 
तलाक की गुहार करती है

प्याऊ पर चुल्लू से पानी पीती
नाबालिक लड़की 
पिता और भाई की हवस का शिकार होने के बाद
सोच रही है रिश्तों का अर्थ

हथकड़ियों को चूड़ियों की तरह पहने हुए एक स्त्री
पति की हत्या के आरोप में
फटी साड़ी से अपने घाव छुपाती है

किसी मनचले लड़के की वासना
अपने चेहरे में पर झेलकर
वह धूप में अपना चेहरा छुपाती है

चोरी के आरोप में
अदालत आयी हुई स्त्री
याद करती है कितनी मिन्नतों के बाद
मालकिन ने उसे बर्तन धोने के काम पर लगाया था

उस स्त्री की भुजाएँ फड़कती है
जिसने आंदोलन का परचम लहराया था
जिसे बनाया था उसने अपने खूबसूरत आँचल से 

सत्य को हारता हुआ देखकर
वे स्त्रियाँ रो पड़ती हैं

बरस पर बरस सब्र का इम्तिहान देते हुए
ज़बानी याद हो गयी हैं उन्हें धाराएं

पेशकार की कलम के नीचे हैं 
फाइलों के जर्जर आवरण
चित्रगुप्त की तरह वह लिखता है 
हर आने वाली का लेखा जोखा

समय के साथ
मौसम की मार से जीर्ण होती बेंच
जाने कब तक देखती रहेगी
अपराध ढोती स्त्रियों का दुःख

उस पर बैठने वाली बच्चियां 
एक दिन बूढ़ी हो जाएंगी
वक़्त के तूफ़ान में
नष्ट हो जाएगी वह बेंच

● ● सीमा बंगवाल ● ●