खुशियों के महल में बुझने लगे हैं
आरज़ू के झाड़फानूस
कुल्हड़ों में सुबकते आँसुओ की चाय
नहीं खरीद पाता कोई
मिट्टी के मकानों में
बुझी हुई राख भी दम तोड़ रही है
तीन दशकों की ऊँची दीवारों की छांव ने
ढक लिए है सदियों के मकान
दोनों ढहने से लगे हैं
सड़कों पर गरीब के हाथ
काट दिए हैं
बेरोजगारी की तलवार से
समाज का सिक्का खड़ा है
दो वर्गों के हेड और टेल पर
जो मौत की टकसाल में
गल रहा है
मंदिर मस्जिद सब ढह गए हैं
अपराध ने भी दम तोड़ दिया है
ज़िन्दगी को मौत हरा रही है
और खत्म होती जा रही हैं संवेदनाएं
सब धीरे धीरे शांत हो रहा है
बन्द दरवाज़े के भीतर
जिस पर कोई खटखट नही हो रही
न कोई आवाज़ ही बाहर सुनाई पड़ रही है
सोते हुए लोग
बाँस के फूलों को खिलने से रोक रहे है
जागती आँखे गर्म आँच से पिघल रही हैं
उदासियों की चट्टानों को धूप जला रही है
ज़िन्दगी अब खौफ़ से बचना चाहती है
● सीमा बंगवाल
https://youtu.be/Ck1UCRCGXkU
यह वर्तमान समय पर टिप्पणी करती हुई बेहतरीन कविता है ।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका।
ReplyDeleteसच है
ReplyDeleteये सब कुछ महसूस करने का वक्त है आप उसे शब्द दे पा रही हैं ये यकीनन जरूरी और कमाल की बात है। आप सिद्ध हैं। उकेरती जाइये
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