Sunday, 31 May 2020

अदालत के बाहर बैठी स्त्रियाँ / सीमा बंगवाल


अदालतों के अहाते में
पेड़ की छांव के नीचे
बरसों से पड़ी बेंच
तारीखों के इंतज़ार में है

वह देख रही है
अदालतों का मुख्य द्वार
दिवानी व फ़ौजदारी मुकद्दमों पर
वकीलों का मेला लग चुका है
कानून की देवी की आँखों पर
काली पट्टी बांध दी गयी है

उसकी दृष्टि में हैं वे स्त्रियाँ
जिन्हें ज्ञात नहीं 
संविधान से मिले अधिकार
उन्हें कानून पर विश्वास है
इसलिए माँगने चली आयी हैं

उम्र की दहलीज़ पार करती स्त्री के घुटने 
गुज़ारे भत्ते की मांग में 
दर्द की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
अठारह बरसों से कराह रहे हैं

सफ़ेद वस्त्रों में लिपटी बेसहारा स्त्री
पिता से लेना चाहती है अधिकार
उसकी आँखों मे झलकता सम्मान
सामना करता है तिरस्कार का

दुधमुंहा बच्चा गोद लिए एक स्त्री
अपनी मायूसी में भुला चुकी है
दहेज उत्पीड़न का दुःख
 
सशक्त दिखाई देने वाली एक स्त्री
खड़ी है विशाल वृक्ष के नीच
घरेलू हिंसा से बचने के लिए 
तलाक की गुहार करती है

प्याऊ पर चुल्लू से पानी पीती
नाबालिक लड़की 
पिता और भाई की हवस का शिकार होने के बाद
सोच रही है रिश्तों का अर्थ

हथकड़ियों को चूड़ियों की तरह पहने हुए एक स्त्री
पति की हत्या के आरोप में
फटी साड़ी से अपने घाव छुपाती है

किसी मनचले लड़के की वासना
अपने चेहरे में पर झेलकर
वह धूप में अपना चेहरा छुपाती है

चोरी के आरोप में
अदालत आयी हुई स्त्री
याद करती है कितनी मिन्नतों के बाद
मालकिन ने उसे बर्तन धोने के काम पर लगाया था

उस स्त्री की भुजाएँ फड़कती है
जिसने आंदोलन का परचम लहराया था
जिसे बनाया था उसने अपने खूबसूरत आँचल से 

सत्य को हारता हुआ देखकर
वे स्त्रियाँ रो पड़ती हैं

बरस पर बरस सब्र का इम्तिहान देते हुए
ज़बानी याद हो गयी हैं उन्हें धाराएं

पेशकार की कलम के नीचे हैं 
फाइलों के जर्जर आवरण
चित्रगुप्त की तरह वह लिखता है 
हर आने वाली का लेखा जोखा

समय के साथ
मौसम की मार से जीर्ण होती बेंच
जाने कब तक देखती रहेगी
अपराध ढोती स्त्रियों का दुःख

उस पर बैठने वाली बच्चियां 
एक दिन बूढ़ी हो जाएंगी
वक़्त के तूफ़ान में
नष्ट हो जाएगी वह बेंच

● ● सीमा बंगवाल ● ●


Friday, 29 May 2020

तो हम न होते / सीमा बंगवाल



गगन और वसुधा की दूरी 
पूर्णता का बोध कराती
आधे होकर ही अच्छे हैं
पूरे होते तो हम न होते.....

सपनों की गठरी को बांधे
एक एक सपना टूटा मेरा
ख़्वाब हैं तो ही अच्छे हैं
सच होते तो हम न होते....

प्रभा -निशा के बंधन जैसे 
दुनिया में सुख दुःख हैं होते
शोक है मन में तो ही अच्छा है
खुशियाँ होती तो हम न होते....

जीवन की राहें थी लंबी
नहीं ठिकाना दूर तलक था
रस्ते तो फिर भी अच्छे हैं
मंज़िल होती तो हम न होते....

प्रेम भँवर में सारे प्राणी
जीवन में संग ढूँढ़ते फिरते
तन्हा हैं तो ही अच्छे हैं
वो मिलता तो हम न होते...

जल की मीन लगाती गोते
बरसों ये प्यासी ही रहती
नदिया बहती तो ही अच्छी है
सागर होते तो हम न होते....

कितनी उम्मीदों के सिर पर
जीवन आते जाते रहते
दिल का मरना ही अच्छा है
जीवन जीते तो हम न होते....

● सीमा बंगवाल

Tuesday, 26 May 2020

घड़ी / सीमा बंगवाल


समय के लिए जब बीत जाने जैसा कोई शब्द नहीं था
उसे मापा जाना भी सम्भव नहीं था
मनुष्य की नियति में वह गुज़रता गया

सूर्य के अस्त होने से पहले
लंबे हो चले पेड़ों के साये
अँधेरे के आग़ोश में समाने लगे

सुबह होते ही फिर वे जन्म लेते 
बढ़ते घटते
और फिर शाम तक लुप्त हो जाते

बरसों बाद इसी जतन से राजा सवाई ने जंतर मंतर से
नापे थे रात व दिन के पहर
गुलाबी से शहर में

रात होते ही विशाल आकाश बन जाता
एक आसमानी घड़ी
जिसके उत्तर में ध्रुव के अटल होने के कारण
कसमें खाते प्रेमी जन
वही केंद्र बनता इस घड़ी का
और सितारे रात भर उसके इर्द गिर्द घूमकर
समय का माप रचते

जाने कितने वर्ष बीते
सदियाँ सहस्त्राब्दियों में बदल  गईं
पल से पहर के बीच
अभौतिक समय का एक छोटा सा खण्ड बना घड़ी
जिसने इस भौतिक घड़ी को जन्म दिया

फिर रात के अंधेरों में जब सूर्य देवता कूच कर जाते
दिवस की यह घड़ी लाचार हो जाती
बून्द बून्द टपकती जलबूँदों की तरह
मनुष्य नापता समय

जहाँ जल नहीं था
समय अंजुलि से फिसलती रेत की तरह बीतता गया

गलता गया मोम बनकर
और मोमबत्ती की देह पर बने निशानों में
वह बीते हुए घन्टों को दर्ज करता गया

यह वह दौर था जब कल कारखानों में
समय नापने के यंत्र बन रहे थे

मनुष्य ने बनायी घड़ियाँ
जाना कि चाँद, सितारों, सूरज के अलावा भी कोई और
समय बता सकता है

धरती के स्वर्ग में ढलता रहा समय
महँगी स्विस घड़ियों के आकार में

वेस्टमिंस्टर में ऊँचे टावर की 'बिग बेन'
समय के साथ गाने लगी
प्रेम का संगीत

फिर एक दिन सूरज हमारी कलाइयों पर
घड़ी बनकर चमकने लगा
हमने पहली बार उसकी टिक टिक में
समय को चलते हुए सुना

वहीं दृष्टिबाधित लोगों ने उसका ढक्कन खोलकर
काँटो के स्पर्श से समय को महसूस किया

आज़ादी का समय
गाँधी की जेब में जंजीर से लटकता रहा

ग्रीन विच की दो सटीक घड़ियों के समय अंको को
इंग्लैंड की महारानी ने बना डाला शून्य
अपने महल की सीमा में

डिजिटल से लेकर परमाणु तक
भिन्न भिन्न परिभाषाओं में चलती रही घड़ी की यात्रा

रंगबिरंगी घड़ियों के दृश्य में
भविष्य का समय मुस्कुराएगा
उसके कानों में गूँजेगी घण्टियों की आवाज़

कितना भी बलवान हो जाये समय
अपने नापे जाने के लिए
वह हमेशा घड़ियों का मोहताज़ होगा ।

● सीमा बंगवाल

Saturday, 23 May 2020

धरती आसमान/ सीमा बंगवाल


तुम जब मेरे आसमान बन जाते हो
और मैं तुम्हारी धरती
तुम्हें गर्व होता है कि
तुम दिग दिगन्त तक फैले हुए हो

तुम्हारे पास स्वर्ग है
जहाँ देवता वास करते हैं
तुम अपने अहम में
देवताओं से भी आगे बढ़ जाते हो

लेकिन तुम भूल जाते हो
आसमान केवल एक शब्द है
उसका कोई अस्तित्व नहीं है
न कहीं कोई स्वर्ग है न
कहीं कोई देवता

धरती एक शाश्वत सत्य है
जैसे मैं
आओ अपने गर्व के आसमान से नीचे उतरो

भले ही धरती के बगैर भी
तुम्हें देखा जा सकता हो
तुम्हारा नाम
धरती के लोगों ने ही रखा है ।

● सीमा बंगवाल

Friday, 22 May 2020

अपरिचय/सीमा बंगवाल


उसने कहा तुम सिर्फ एक स्त्री हो
मेरी मनुष्यता
उसके पौरुष में सिमटने लगी

उसने कहा तुम अनुगामिनी हो
मेरा सहचर्य
उसके पदचिह्नों में समाने लगा

उसने कहा तुम सिर्फ देह हो
मेरे प्राण
उसके शरीर में दम तोड़ने लगे

उसने कहा तुम अशक्त हो
मेरी सशक्तता
उसकी ताकत से हारने लगी

उसने कहा तुम त्याज्य हो
मेरी स्वीकार्यता
उसके अस्तित्व से याचना करने लगी

उसने कहा तुम मूर्ख हो
मेरी बुद्धिमत्ता
उसके मस्तिष्क में घुटने टेकने लगी

फिर एक दिन उसने कहा
बताओ मैं कौन हूँ
मैंने कहा तुम
मेरी मानवता मेरे सहयोग
मेरे प्राण मेरी ताकत
मेरे स्वीकार मेरी मेधा
और
मेरे रक्त से बने पुरुष हो।

● सीमा बंगवाल

Thursday, 21 May 2020

आसमान को कौन समझाए/सीमा बंगवाल


  
आसमान के आँचल में
जाने कितने चाँद,सितारे,क्षुद्रग्रह
फिर भी उसकी शिकायतों में
उसका खालीपन

अपने विहंगम बोध में
वह अपनी तुलना करता
सागर के नीलेपन से
जहाँ कभी शुरू हुआ था पृथ्वी पर जीवन
कोयसरवेट्स के रूप में
उसने ही बिखराए थे
सम्पूर्ण सृष्टि में जीवन के अगणित रंग

उसके कांधे पर सर रखकर ज़ार ज़ार रोती नदियाँ
उनके आँसुओं का खारापन मिल जाता नभ के आँसुओं में
जमा हो जाता कहीं सागर की तलहटी में

आकाश अपनी अनभिज्ञता में नहीं देख पाता
पृथ्वी पर जीवन की असीमता
जीवों की कल्पना में आसमान से ऊँचे स्वप्न
कल्पना की रंग-बिरंगी परियाँ
उतरती जादू की छड़ी के साथ

वह विस्मृत करता
मानव निर्मित मिसाइलों के आलिंगन
नहीं विस्मृत कर पाता
अंतरिक्ष मे डूब चुके उपग्रहों का प्रेम
वह विचरण करता
उड़नतश्तरियों की कल्पनाओं में
एलियन्स की दुनिया के आभासी अस्तित्व में
नीली विशाल छत पर
चहलकदमी करते उपग्रहों में
तलाशता जीवन की संभावनाएं

उसकी बाहों के घेरे में है पृथ्वी
उसकी विस्मृति में ब्रह्मांड का सत्य
निर्जीवों के संसार में जन्म लेते सजीव
जाने कितनी प्रेमिकाओं सी आकाशगंगाएं
जाने कितनी मंदाकिनियाँ
दानवीर आकाश
उनके बीच बांटता अपना सर्वस्व

आकाश के अनिर्मित परिवार में
समंदर सदृश जाने कितने जीवन बनने शेष हैं अभी
जाने कितनी प्रेमिकाएं
अभी बाहों में आने को हैं आतुर

यद्यपि वह भिज्ञ है जीवों की दृष्टिसीमा से
कि वायुमंडल के सूक्ष्म कणों के कारण ही
अस्तित्व में है उसका आभासी अनंत

लेकिन आकाश के खालीपन में
एकांत के आँसुओं के
अनेक संसार हैं ।

●●●●सीमा बंगवाल



Wednesday, 20 May 2020

खौफ़/सीमा बंगवाल


ज़िन्दगी खौफ़ की गलियों से गुज़र रही है
खुशियों के महल में बुझने लगे हैं
आरज़ू के झाड़फानूस

कुल्हड़ों में सुबकते आँसुओ की चाय
नहीं खरीद पाता कोई
मिट्टी के मकानों में
बुझी हुई राख भी दम तोड़ रही है

तीन दशकों की ऊँची दीवारों की छांव ने
ढक लिए है सदियों के मकान
दोनों ढहने से लगे हैं

सड़कों पर गरीब के हाथ
काट दिए हैं
बेरोजगारी की तलवार से

समाज का सिक्का खड़ा है
दो वर्गों के हेड और टेल पर
जो  मौत की टकसाल में
गल रहा है

मंदिर मस्जिद सब ढह गए हैं
अपराध ने भी दम तोड़ दिया है
ज़िन्दगी को मौत हरा रही है
और खत्म होती जा रही हैं संवेदनाएं

सब धीरे धीरे शांत हो रहा है
बन्द दरवाज़े के भीतर
जिस पर कोई खटखट नही हो रही
न कोई आवाज़ ही बाहर सुनाई पड़ रही है

सोते हुए लोग
बाँस के फूलों को खिलने से रोक रहे है
जागती आँखे गर्म आँच से पिघल रही हैं
उदासियों की चट्टानों को धूप जला रही है

ज़िन्दगी अब खौफ़ से बचना चाहती है

● सीमा बंगवाल


https://youtu.be/Ck1UCRCGXkU